हिमालय दिवस Himalya Day की शुभकामनाएं सहित राष्ट्रकवि दिनकरजी की कविता

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आज 9 सितंबर को हिमालय दिवस(Himalya Day) के रूप में मनाया जाता है। आप सबको हिमालय पर कई कविता, दोहे, शायरी, कहानियां, यात्रा कथाएं पढ़ने को मिली होंगी। आज इस ब्लॉग के माध्यम से मैं राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। उनकी कई रचनाएं मुझे अत्यधिक प्रिय हैं और मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि मेरी जन्मस्थली भी उन्ही के जिले में हुई है यानी बेगूसराय में ही।

Himalya Day हिमालय दिवस


हिमालय दिवस की शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है उनकी यह कविता। Happy Himalya Day


मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!


युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेंरे नगपति! मेरे विशाल!


ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!




कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

Himalya Day हिमालय दिवस



तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल
मेरे नगपति! मेरे विशाल!



Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर
Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर




राष्ट्रकवि दिनकरजी की लेखनी का मैं बचपन से प्रशंसक हूँ।
उनकी रश्मिरथी से ली गयी कविता के अंश श्री "कृष्ण की चेतावनी" और "क्षमा" जो क्रमशः मेरे छठी और सातवीं कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक में थी मुझे आज भी कंठस्थ है।

हिमालय पर लिखी उनकी इस कविता का भी मैं कायल हूँ। आपको उनकी यह कविता कैसी लगी आप कमेंट में करके अवश्य बताएं।

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