Rajgir Stupa, Bihar |
ग्रुप के सभी सदस्यों को नमस्कार🙏💐
कहानी बचपन की के समापन दिवस पर प्रस्तुत है मेरी कहानी
रैंगिग और रोमांचक यात्रा
मेरे जीवन मे कक्षा शिशु प्रवेश, शिशु बोध और प्रथम के बाद सीधे कक्षा षष्ठ में नामांकन हो गया। निजी विद्यालय और सरकारी विद्यालय दोनो में नामांकन साथ होने के कारण छात्र जीवन उत्तर चढ़ाव वाला रहा।
पहले बचपन में दादी व अन्य बुजुर्ग काफी किस्से-कहानियां सुनाया करते थे। राम, कृष्ण, गौतम, छत्रसाल, शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा भारतीय वीरों, वीरांगनाओं, भक्त की कहानियां सुनते-सुनते बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण हो जाया करता था। यह आजकल दुर्लभ होता जा रहा है, वर्तमान समय में बुजुर्गों को टीवी, राजनीति व अन्य बातों के कारण समय ही नहीं है।
इन सब कथाओं को परे रखकर अब मैं सीधे अपने कहानी पर आता हूँ।
बात उन दिनों की है जब मैं सातवीं कक्षा में गया था। विद्यालय में जो 3 किमी दूर बेगूसराय शहर में ही है। विद्यालय जीवन मे वाद- विवाद, सामान्य ज्ञान, विज्ञान, शतरंज प्रतियोगिता में मैं जोर शोर से भाग लेता था और मैं और भैया दोनों भाई का विद्यालयी जीवन में एक प्रकार का रुतवा था इस प्रकार की प्रतियोगिता में। शिक्षकों और छात्रों का समर्थन भी था तो कुछ जलते भी थे।
एक दिन किसी प्रतियोगिता पुरस्कार के बाद कुछ सीनियर छात्र-छात्राओं ने मेरे समूह में अपने रौब झाड़ रैंगिग कर रहे थे। और इसी विवाद के क्रम में उन्होंने हमारे समुह के 7 छात्रों को कहा कि एक दिन की यात्रा 100 रुपये के अंदर कर के दिखाओ या सबके सामने सजा के तौर पर मुर्गा बनो
हमारे 4 साथियों ने इस चैलेन्ज को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन समस्या ये थी कि किसी ने भी बिना अभिभावक साधारण मार्केटिंग भी नही की थी तो एक दिवसीय यात्रा चैलेंज मंहगा होता दिख रहा था।
लेकिन जब ओखली में सिर डाल ही दिया तो मूसल से क्या डरना, हम लोग लगे प्लान बनाने। कैसे यात्रा की जाए? 16 अगस्त के दिन सुनिश्चित किया गया और यात्रा स्थल जहां विश्व प्रसिद्ध घुमक्कड भगवान बुद्ध को बोध प्राप्ति के बाद पहला संबोधन हुआ था। यानी कि विश्व प्रसिद्ध प्राचीन नगरी राजगृह (राजगीर)।
नियत समय पर लंच के बाद विद्यालय से भागकर और पहले से स्कूल बैग में पुस्तक के स्थान पर जरूरी कपड़े, भोजन और अन्य समान रखा जा चुका था।
पहुच गए बरौनी जंक्शन।
यात्रा का प्रारम्भ हो चुका था साथ मे थे अश्विन, पीयूष, सिदार्थ और माधव यानी कि मैं।
चूंकि पैसे खर्च नही करने थे तो बिना टिकट ही लोकल ट्रैन दरभंगा से पटना तक जाने वाली ट्रेन में अपनी जगह बना चुके थे। पटना से पहले बख्तियारपुर स्टेशन ( ये उसी पापी बख्तियार खिलजी के नाम पर है, जिसने विश्व प्रसिद्ध नालन्दा को जलाया था ) स्टेशन में राजगीर के लिए ट्रेन चेंज करनी थी। बख्तियारपुर तक 60 किमी की दूरी में 6 घंटे लग गए। ये हालात ट्रैंन की थी,की 8 बजे गए। हालांकि अगली ट्रैन में 3 घंटे का विलंब था। साथ लाया खाना खाया गया। और 11 बजे वाली ट्रैन 2 बजे रात में आयी हम चारो के मन वापस लौटने का मन बार बार कर रहा था। एक साथी तो स्टेशन वाले पीसीओ से घर काल भी कर चुका था। उनके घर से कार भी आ गयी लेकिन बाकी तीन सदस्य की जिद से हमने आगे बढ़ने का मन बनाया।
राजगीर वाली मेमू ट्रैन थोड़े विलंब के साथ आयी हम लोग तैयार ही बैठे थे, उसमे लपक के बैठे पूरे बोगी में बस हम चारो। पुलिस की टीम जांच में आ गयी पता नही क्यों हम चारो को एक साथ देखकर बिना टोके आगे बढ़ गए। हम सब सोने का नाटक करने लगे थे।
लेकिन आधे घंटे में फिर से ढेर सारे पुलिसकर्मी आ गए उन्हें शक था कि हम चारों घर से भाग गए है। स्कूल ड्रेस, बैग, और संस्कारी बच्चे पर उन सबको दया आ गयी। हम सबको भी पुलिस कर्मी पर सबसे ज्यादा भरोसा था। कि वो हम सबकी मदद करने के लिए ही होते है। उन्हें सही जानकारी मिली तो सुबह तक साथ रहे चाय पीते नही थे। तो फ्री के बिस्कुट ही मिल पाए।
सुबह सुबह 4 बजे राजगीर पहुंच गए। वहां से पैदल ही कुंड क्षेत्र पहुंचे। बाकी कुंड में पानी ना के बराबर था लेकिन ब्रह्मकुंड में प्राकृतिक गर्म पानी था, भारी भीड़ के बावजूद ब्रह्मकुंड में काफी उधम मचाया, मन भर नहाया गया ।
फिर वहां से विपुलाचल पर्वत पर चढ़े गर्मी के बावजूद दौड़ते, हंसते बातें करते, खेलते सीढ़ियों से शिखर पर पहिंच ही गए। जापान सरकार ने वहां अच्छी व्यवस्था निर्मित की थी शिखर पर मंदिर और वहां से विहंगम दृश्य अदभुत है, साथ ही प्रसिद्ध विद्या मंदिर विद्यालय भी दिख रहा था।
फिर एक विदेशी यात्री बस में कंडक्टर और यात्रियों के सहयोग से फ्री में बैठकर उनके साथ ही अन्य मंदिर, पहाड़, जरासंध का अखाड़ा इत्यादि देखा शाम होने को आई और भूख से पेट में चूहे कैसे कूदते हैं, पहली बार महसूस हुआ।
तीर्थक्षेत्र में मारवाड़ी भोजनालय दिखा जो 20 रुपये में भरपेट भोजन करवाता था। चावल, दाल, रोटी, 2 सब्जी, कढ़ी, दही, सलाद, पापड़, आचार , छाछ और हलुए।
सब ने अपने हिसाब से जमकर खाया। छोटा पेट आखिर खाते भी कितना लेकिन दाल और दही कई बार ली गयी।
अब वापसी के लिए स्टेशन पर ट्रेन फिर विलंब से थी। सभी को रातभर और दिनभर धमाचौकड़ी से थक गए थे भरपेट भोजन के बाद निंद्रा रानी ने हमे घेर लिए चारो सो गए। ट्रैन की जोड़दार ध्वनि पर जागे तो देखा बैग ही गायब है। अब सब सकते में मैं तो और भी ज्यादा डर गया की अब घर पर क्या बोलूंगा।
आधे घंटे तक फालतू में ढूढते रहे नही मिला। फिर पुलिस चौकी पहुंचे। और पुलिस पर हमारा विश्वास और बढ़ गया जब चारो बैग वहीं रखे मिल गए। लेकिन खाली लंच बॉक्स एक भी नही मिला।
एक वृद्ध साध्वी माता जो स्टेशन परिसर के बगल में ही झोपड़ी में रहती थी। उनके सहयोग से वो बैग पुलिस वालों को मिले थे। जब एक चोर की शिकायत उन्होंने किया था। हमने बचे 20 रुपये उन्ही की थाली में रख प्रणाम कर घर की ओर निकल परे।
दूसरे दिन विद्यालय में सीनियर की बोलती बन्द थी, समुचित यात्रा उत्तर मिल गए थे उन्हें। हम लोग फिर से विद्यालय नायक बन चुके थे।
एक जिद, शर्त जीतने की उत्कंठा और शरारत से उपजी यात्रा ने काफा चीजे सिखाई। घर पर डांट भी पड़ी । माफी मंगवाई गई दुबारा ना करने के लिए।
जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारतें नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जीया होगा, क्योंकि 'बचपन में मन सच्चा और दिमाग शरारती होता है। कहीं भी शोर मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं तथा हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो आती है।
आज भी ये घटना पर हम चारो सहपाठी व सहयात्री और विद्यालय जीवन से जुड़े साथी चर्चा करते रहते।
हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की अपनी मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहन, सहपाठी-दोस्त, स्कूल के दिन, पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' फल खाना, धूप में क्रिकेट, पोखर/नदी में तैरना, गर्मी छुट्टी में उधम मचाना, शिक्षक और अभिभावक से मार खाना ये सब भी तो बचपन कि पूँजी है।
अब वो जो बचपन बीत चुका है, वह अगले जन्म के पहले नहीं आने वाला! हां, उसकी सुखद-मधुर यादें आपके हृदय में अंतिम समय तक बनी रहेंगी।
सभी सदस्यों को नमस्कार एवं इस लंबी कहानी को झेलने के लिए धन्यवाद।
सही कहा, जिसने बचपन नहीं जिया, उसने क्या खाक जिया.......
जवाब देंहटाएंवाह बचपन हो तो ऐसा
जवाब देंहटाएंBadhiya, bachon ki shair aaj fir se.👌
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